महंगाई को लेकर सदन में भले ही हो हल्ला हो रहा हो लेकिन आम आदमी में कोई आक्रोश नहीं है। कहीं कोई विरोध नहीं, कहीं कोई उत्तेजना नहीं। नेताओं की बहस उनकी अपनी राजनीति का हिस्सा है लेकिन हम तो असली सफरर हैं तो िफर यह चुप्पी क्यों, इसका जवाब कहीं से नहीं आ रहा है हां कराह जरूर साफ सुनाई दे जाएगी, महंगाई से लगभग टूट चुके आदमी की कराह, एक तस्वीर मैं उस शहर की पेश करना चाहता हूं जहां पिछले चार माह से मैं एक मीडिया पर्सन की हैसियत से कार्यरत हूं। यह शहर उत्तर प्रदेश का गोरखपुर है। इस शहर की छवि आपके मन में भले ही कितनी खतरनाक क्यों न हो पर सच्चाई यह है कि गोरखपुर एक ऐसा शहर है जिसे विरोध की भाषा नहीं आती, जिसकी जुबान पर वे शब्द कभी नहीं आते हैं जो सत्ता या शक्ति का विरोध करने के लिए बनाए गए हैं या जिनकी तासीर कुछ वैसी है। महंगाई से यह शहर भयानक तरीके से टूट चुका है। यहां सरकारी और गैरसरकारी दोनों तरह की महंगाई समानांतर काम करती हैं। सरकारी वह जो डीजल और पेटरोल की कीमत बढने के साथ बढी और गैरसरकारी वह जिसकी वजह कोई नहीं जानता पर एक जवाब क्या करें महंगाई है। यह आम रोना है लेकिन इसका हल शायद ही किसी को दिखाई दे रहा हो। हमारे रहनुमा भी सिर्फ और सिर्फ खामोश रहना जानते हैं क्योंकि उनकी चुप्पी का टूटना उनके अपने हित पर कुठाराघात बन सकती है। ऐसे में क्या जरूरत है विरोध की। अब रही बात आम जनता की तो वोट देने के बाद ही उसकी जुबान पर ताला ठोंक दिया जाता है। बेचारी जनता का हाल भी तो देखिए, उसे जब भी मौका मिलता है अपने रहनुमा चुनने का तो उसे रातोरात जाति, क्षेत्र और धर्मवादी बना दिया जाता है। वोट दिया और वह िफर से वही रह जाता है जो वह था। ऐसी बेचारी जनता से कोई विरोध की उम्मीद कैसे कर सकती है। उसकी जो ताकत है उसका अहसास उसे या तो होने नहीं दिया जाता है और यदि हो गया तो उसे कथित रहनुमा या समाज के ठेकेदार अपनी तरह से इस्तेमाल करते हैं।
आपको शायद ही इस बात का अंदाजा हो कि जिस शहर की मैं बात कर रहा हूं वहां की महंगाई को दिल्ली, चंडीगढ और मुंबई से कम्पेयर कर सकते हैं। आईनेक्स्ट न्यूजपेपर ने ऐसा प्रयास कर जनता को बताया था कि कैसे यहां महंगाई आसमान पर है और छोटी सी इनकम वाला आदमी पिस रहा है। महंगाई के कारण लोगों ने अपने बच्चों के स्कूल बदल दिए। मैं नोएडा से ही हाल में यहां आया हूं। वहां का कठोर सच आपको बता रहा हूं। ऐसे तमाम परिवार हैं जो महंगाई के सामने हार गए और नोएडा से गाजियाबाद में शिफट हो गए। वहां तुलनात्मकरूप से सस्ते मकानों में आशियाना बनाया और सस्ते स्कूलों में अपने बच्चों को पढाना शुरू कर दिया। उनके किचन में जो कुछ पकता है वह तो वे ही जानते हैं। लेकिन विरोध कहीं नहीं है। आखिर यह चुप्पी क्यों। सदन में हंगामा कर नेता आमआदमी की सहानुभूति अर्जित कर आने वाले चुनाव में उसे कैश कराने की तैयारी में जुटे हैं लेकिन हम जो इसके असली पीडित हैं उनके पास विरोध के लिए कुछ भी नहीं है। हमारी चुप्पी ने मािफयाओं को बेहद ताकतवर बना दिया है। और यह क्रम जारी रहेगा। जब तक हम विरोध की हिम्मत नहीं जुटा पाएंगे यह सब बदस्तूर चलता रहेगा।