Tuesday, October 5, 2010

एक और अच्‍छी पहल

हमारी शिक्षा को लेकर तमाम सालों से यह प्रश्न खड़ा किया जा रहा है कि आखिर जो कुछ हम प्राइमरी से लेकर यूनिवर्सिटी तक पढ़-पढ़ा रहे हैं लाइफ में उसकी अहमियत है. यहां तक कि जॉब में भी उसका रोल उतना नहीं होता है जितना कुछ हम पढ़ जाते हैं. मैकाले की शिक्षापद्धति को कोसने से इतर राज्य शिक्षा बोर्डों द्वारा अब तक कुछ नहीं किया गया. हां बदलाव आया है लेकिन बहुत धीमा और लगभग हर बार पिछड़ा हुआ. यानि जब हमें आईटी में दक्षता के लेबल पर होना चाहिए था तब हम कंप्यूटर की बात कर रहे हैं वह भी अभी मॉडल स्‍कूलों तक ही प्रोजेक्ट बन पाया है. कम से कम यूपी का तो यही हाल है. उत्तराखंड में भी राजकीय विद्यालयों के लिए यह पहल सात साल पहले शुरू की गई थी। अब बात कोर्सेस की आती है. सीबीएसई ने नई पहल के तहत कक्षा आठ तक स्टूडेंट्स को होमवर्क से मुक्त कर दिया है. एक स्टूडेंट का सिर्फ किताबी ज्ञान ही जांचने की जगह सीबीएसई ने उसके समग्र मूल्यांकन पर जोर दिया है. जो पहल सीबीएसई ने अब शुरू की है ऐसी ही पहल दिल्ली आईआईटी के अपने समय के टॉपर रहे पवन भाई मसूरी की वादियों में संचालित कर रहे अपने स्‍कूलों में बहुत पहले ही कर चुके हैं. वे अपनी संस्था के तहत बच्चों को नि:शुल्‍क शिक्षा दे रहे हैं. किताबें भी उन्होंने खुद तैयार की हैं और पढ़ाने का मैथड भी. उन्होंने बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा का पूरा खाका ही बदल दिया है. उनका मानना है कि हम जिस तरह से बच्चों को शिक्षा दे रहे हैं वह पूरा तरीका ही अव्यावहारिक है. हमें उसकी समझ और स्मृति से ज्ञान की ओर की यात्रा करानी चाहिए न कि ज्ञान की यात्रा इन दोनों की ओर हो. पवन भाई ने जो अपने स्तर पर सेलेबस बनाया है उसमें कैट माने बिल्ली नहीं पढ़ाया जाता है बल्कि म्याऊं माने बिल्ली और बिल्ली माने कैट पढ़ाया जाता है. काश राज्य शिक्षा बोर्ड भी इस बात को समझ सकें और सेलेबस बनाते समय उसकी उपयोगिता और समझ पर ज्यादा ध्यान दें तो शायद आने वाली पीढिय़ों को बहुत फायदा हो जाएगा. सीबीएसई की इस पहल का स्वागत होना चाहिए.

Saturday, October 2, 2010

इमोशनल अत्‍याचार

'Plz Plz zzzzzzzzzzzzzzDo it,, M Begging OK.......Plz Fwd and help little natalie.' यह ईमेल एक दिन पहले ही मेरे एक करीबी की अनुकंपा से मेरे मेल बाक्स में दाखिल हुआ था।मैंने जब मेल देखी तो आंखें आश्चर्य से चौड़ी हो गईं। यदि हिसाब-किताब की भाषा में बात की जाए तो शायद मैं पांच हजारवां व्यक्ति था जिस तक यह मेल मात्र दस दिन में पहुंची थी। एक ओर सुखद आश्चर्य हुआ कि चलो हम कितने संवेदनशील हैं जो एक बच्ची को बीमारी से निजात दिलाने के लिए इतने लोगों ने हाथ बढ़ा दिया. निश्चित तौर पर ईमेल्स का यह आंकड़ा सुकून देने वाला था।इस मेल को फारवर्ड करने में मेरा कुछ नहीं जाता है लेकिन सवाल सबसे बड़ा यही है कि जिस नताली नाम की बच्ची की बीमारी की बात की गई है यानि उसे ब्रेन कैंसर बताया गया है, उसकी फोटोग्राफ भी डाली गई है, उसके बारे में कोई नहीं जानता है कि यह नताली या उस मेल में रिक्वेस्ट करने वाली उसकी मां केरिस्टा मैरी कौन है. वह कहां की रहने वाली है और उसकी बेटी के इलाज पर कितना खर्च होने वाला है. मैसेज में लिखा है कि प्रति मेल उन्हें एओएल कंपनी पांच सेंट देगी। मेल भेजने वाले और चेन को अभियान की तरह आगे बढ़ाने वाले मित्रों का मैं अभिनंदन करता हूं. एक और मेल की बात करता हूं, यह हमें साईं बाबा की फोटो के साथ यह बताते हुए भेजा गया था कि यदि इसे हमने दस लोगों को फारवर्ड कर दिया तो अड़तालीस घंटे के अंदर हमें कोई बड़ा लाभ मिल जाएगा और यदि हमने ऐसा नहीं किया तो हम तबाह भी हो सकते हैं. मैं इस मेल पर भी देर तक रुका रहा और अंत में तय किया कि शिरड़ी के उस फकीर ने तो सिर्फ और सिर्फ लोगों की झोलियां ही भरी हैं कभी किसी का अहित नहीं किया है फिर ऐसा कैसे हो सकता है. मैंने मेल किसी को भी फारवर्ड नहीं किया. यहां भी मैं आपको बता दूं कि यह मेल भी हजारों लोगों से होते हुए हम तक पहुंचा था। कभी कैंसर पीडि़त बच्चे के नाम पर, कभी किसी बच्चे के हार्ट में सुराख होने के नाम पर तो कभी बच्चों के अनाथ होने के नाम पर हमारे पास ऐसी तमाम मेल आ चुकी हैं जो हमारी सेंस्टिविटी को कैश कराती हैं. क्योंकि दुनिया का शायद ही कोई निकष्ट और क्रूर व्यक्ति होगा जिसका कलेजा बच्चों के दुख-दर्द में न पसीजता हो साथ ही वह धर्म के खौफ से न डरता हो. फिर तो ये दोनों ही बातें क्या किसी हथियार से कम हैं. लेकिन एक बड़ा सवाल जो छूट रहा है उसका जवाब भी जरूरी है। कहीं हमारी संवेदना का एक्सप्ल्वाइटेशन तो नहीं किया जा रहा है. क्या कभी हमने जानने की कोशिश की है कि इस सबके पीछे असल खेल कहीं ईमेल हार्वेस्टिंग का तो नहीं है. हमारे एक साथी ने इसे और साफ कर दिया. उन्होंने बताया कि वह खुद भी ऐसी ही ईमेल हार्वेस्टिंग करके पैसा कमा चुके हैं. यदि उनकी बात पर भरोसा करें तो उन्होंने एक ईमेल भेजकर हजारों आईडी मात्र चंद दिन में कलेक्ट कर लीं और फिर उन्हें एक कंपनी के हाथ बेच दिया. आपके मेल पर आने वाले अनगिनत मैसेजेज का जरिया इसी तरह के तमाम मेल हैं. जिन्हें फारवर्ड करते समय आप एक बेहतरीन इंसान होते हैं, ऐसा ही खयाल ज्यादातर के मन में आता है. लेकिन एक मानवीय किस्म का सवाल भी हमारे सामने है। सूचना क्रांति के इस दौर में सबसे ज्यादा नुकसान यदि किसी का हुआ है तो वह हमारी संवेदना है। हमें सोचने ही नहीं दिया जाता है। सब कुछ यंत्रवत हमारे सामने परोसा जाता है और फिर बताया जाता है कि अब हंसना है या फिर रोना है या कुछ संजीदा टाइप का दिखना है. ऐसे दौर में यदि इस तरह के मेल या मैसेजेज हमारी संवेदना को कैश कराते रहे तो शायद जिस दिन किसी बच्चे, बूढ़े, मजलूम को सचमुच मदद की दरकार होगी तब वही मेल हमारे लिए ‘इट इज जस्ट जोकिंग’ भर बनकर रह जाएगी. इसलिए प्लीज हमारी सेंस्टिविटी का एक्सप्ल्वाइटेशन करना बंद करो.

काश, हम इन दिनों की अहमियत जान पाते

सितंबर का आखिरी सप्ताह और अक्टूबर का पहला सप्ताह कई मायनों में खासा महत्‍वपूर्ण रहा या है. सितंबर के अंतिम सप्ताह में देश ने अपनी राष्ट्रीय एकता का नायाब उदाहरण पेश कर पूरी दुनियां की आंखें चकाचौंध कर दीं. हर किसी का सीना अपने भारतीय होने पर गर्व से चौड़ा हो गया। आप मेरा मतलब समझ गए होंगे, अक्टूबर का पहला सप्ताह भी आ गया। गांधी और लालबहादुर शास्त्री की जयंती पड़ी। हमने वर्ल्‍ड टूरिज्म डे मनाया, इल्डर्स डे पर बुजुर्गों को याद किया गया तो उससे पहले गर्ल्‍स चाइल्ड डे जैसे दिनों को भी याद करने की कोशिश की. हर साल ये दिन आते हैं याद किए जाते हैं और बीत जाते हैं. हम शायद ही कभी इन दिनों की उपादेयता को साकार करने की कोशिश कर पाते हों. और यदि ऐसा नहीं है तो फिर क्या यह बताने की गरज भर हमारे सामने है कि देखो हम इन दिनों को अपने कैलेंडर पर दर्ज रखते हैं. ‘मुन्ना भाई’ से शुरू हुआ गांधीगिरी का नशा भी अब युवाओं में लगभग खत्म-सा हो चुका है. भले ही यह एक फिल्म का प्रभाव हो ले·किन कुछ दूर तक और कुछ देर तक तो इसका असर दिखा ही. यूथ अपने विरोध के लिए गुलाब का फूल लेकर पहुंच जाते थे, पैर पकड़ कर अपनी बात मनवा लेते थे. लेकिन समय बदला और यह कोशिश भी धीरे-धीरे दादागिरी में परिवर्तित हो गई और इसका उपयोग कालेज, यूनिवर्सिटी की लडकियों को अपने प्रभाव में लेने के लिए किया जाने लगा है लालबहादुर शास्त्री को तो शायद हम बहुत आसानी से भूलने भी लगे हैं, खासतौर से यूथ का हाल और भी खराब है. जिस देश की आधारशिला यूथ हो, जिस देश की सबसे बड़ी ताकत यूथ हो, जिस देश में सबसे बड़ी आबादी यूथ की हो उस देश का यदि भागम-भाग की जिंदगी में फंसकर अपने मूल को फालतू लगभग बोरिंग और कोरी बकवास मानने लेगेगा तो फिर क्या उम्मीद करेगा। फिर गर्ल्‍स चाइल्ड डे, गांधी जयंती, इल्डर्स डे, शास्त्री जयंती जैसे तमाम डेज का कोई महत्व नहीं होगा. यूथ के लिए तो ज्यादातर दिनों का मतलब अवकाश और फिर मौजमस्ती से होता है. फिर चाहे वह कोई भी डे हो या जयंती. काश हमारा यूथ इन दिनों की अहमियत को समझते हुए कोई सकारात्‍मक पहल करे तो शायद ही कोई ऐसा सपना होगा जिसे साकार करने से हमें कोई रोक पाता. जिस दिन दुनिया भर में गर्ल्‍स चाइल्ड डे मनाया जा रहा था उसी दिन न जाने कितनी बच्चियों को चाइल्ड एब्यूज का शिकार होना पड़ा. उनके साथ रेप से लेकर हत्या तक की वारदातें हुईं. यही हाल गांधी जयंती का रहा. अहिंसा के पुजारी का दिन भी हिंसा से अछूता नहीं रहा। कम से कम हमारी युवा पीढी जिससे अब भी बहुत सारी उम्‍मीदें हैं और हम विश्‍वास करते हैं कि हमारा यूथ कैरियर और मस्‍ती के साथ अपने मूल अपने बेसिक को बचाने के लिए आगे आएगा:

Monday, August 2, 2010

महंगाई के खिलाफ यह चुप्‍पी क्‍यों

महंगाई को लेकर सदन में भले ही हो हल्‍ला हो रहा हो लेकिन आम आदमी में कोई आक्रोश नहीं है। कहीं कोई विरोध नहीं, कहीं कोई उत्‍तेजना नहीं। नेताओं की बहस उनकी अपनी राजनीति का हिस्‍सा है लेकिन हम तो असली सफरर हैं तो ि‍फर यह चुप्‍पी क्‍यों, इसका जवाब कहीं से नहीं आ रहा है हां कराह जरूर साफ सुनाई दे जाएगी, महंगाई से लगभग टूट चुके आदमी की कराह, एक तस्‍वीर मैं उस शहर की पेश करना चाहता हूं जहां पिछले चार माह से मैं एक मीडिया पर्सन की हैसियत से कार्यरत हूं। यह शहर उत्‍तर प्रदेश का गोरखपुर है। इस शहर की छवि आपके मन में भले ही कितनी खतरनाक क्‍यों न हो पर सच्‍चाई यह है कि गोरखपुर एक ऐसा शहर है जिसे विरोध की भाषा नहीं आती, जिसकी जुबान पर वे शब्‍द कभी नहीं आते हैं जो सत्‍ता या शक्ति का विरोध करने के लिए बनाए गए हैं या जिनकी तासीर कुछ वैसी है। महंगाई से यह शहर भयानक तरीके से टूट चुका है। यहां सरकारी और गैरसरकारी दोनों तरह की महंगाई समानांतर काम करती हैं। सरकारी वह जो डीजल और पेटरोल की कीमत बढने के साथ बढी और गैरसरकारी वह जिसकी वजह कोई नहीं जानता पर एक जवाब क्‍या करें महंगाई है। यह आम रोना है लेकिन इसका हल शायद ही किसी को दिखाई दे रहा हो। हमारे रहनुमा भी सिर्फ और सिर्फ खामोश रहना जानते हैं क्‍योंकि उनकी चुप्‍पी का टूटना उनके अपने हित पर कुठाराघात बन सकती है। ऐसे में क्‍या जरूरत है विरोध की। अब रही बात आम जनता की तो वोट देने के बाद ही उसकी जुबान पर ताला ठोंक दिया जाता है। बेचारी जनता का हाल भी तो देखिए, उसे जब भी मौका मिलता है अपने रहनुमा चुनने का तो उसे रातोरात जाति, क्षेत्र और धर्मवादी बना दिया जाता है। वोट दिया और वह ि‍फर से वही रह जाता है जो वह था। ऐसी बेचारी जनता से कोई विरोध की उम्‍मीद कैसे कर सकती है। उसकी जो ताकत है उसका अहसास उसे या तो होने नहीं दिया जाता है और यदि हो गया तो उसे कथित रहनुमा या समाज के ठेकेदार अपनी तरह से इस्‍तेमाल करते हैं।
आपको शायद ही इस बात का अंदाजा हो कि जिस शहर की मैं बात कर रहा हूं वहां की महंगाई को दिल्‍ली, चंडीगढ और मुंबई से कम्‍पेयर कर सकते हैं। आईनेक्‍स्‍ट न्‍यूजपेपर ने ऐसा प्रयास कर जनता को बताया था कि कैसे यहां महंगाई आसमान पर है और छोटी सी इनकम वाला आदमी पिस रहा है। महंगाई के कारण लोगों ने अपने बच्‍चों के स्‍कूल बदल दिए। मैं नोएडा से ही हाल में यहां आया हूं। वहां का कठोर सच आपको बता रहा हूं। ऐसे तमाम परिवार हैं जो महंगाई के सामने हार गए और नोएडा से गाजियाबाद में शिफट हो गए। वहां तुलनात्‍मकरूप से सस्‍ते मकानों में आशियाना बनाया और सस्‍ते स्‍कूलों में अपने बच्‍चों को पढाना शुरू कर दिया। उनके किचन में जो कुछ पकता है वह तो वे ही जानते हैं। लेकिन विरोध कहीं नहीं है। आखिर यह चुप्‍पी क्‍यों। सदन में हंगामा कर नेता आमआदमी की सहानुभूति अर्जित कर आने वाले चुनाव में उसे कैश कराने की तैयारी में जुटे हैं लेकिन हम जो इसके असली पीडित हैं उनके पास विरोध के लिए कुछ भी नहीं है। हमारी चुप्‍पी ने माि‍फयाओं को बेहद ताकतवर बना दिया है। और यह क्रम जारी रहेगा। जब तक हम विरोध की हिम्‍मत नहीं जुटा पाएंगे यह सब बदस्‍तूर चलता रहेगा।