Saturday, October 2, 2010

काश, हम इन दिनों की अहमियत जान पाते

सितंबर का आखिरी सप्ताह और अक्टूबर का पहला सप्ताह कई मायनों में खासा महत्‍वपूर्ण रहा या है. सितंबर के अंतिम सप्ताह में देश ने अपनी राष्ट्रीय एकता का नायाब उदाहरण पेश कर पूरी दुनियां की आंखें चकाचौंध कर दीं. हर किसी का सीना अपने भारतीय होने पर गर्व से चौड़ा हो गया। आप मेरा मतलब समझ गए होंगे, अक्टूबर का पहला सप्ताह भी आ गया। गांधी और लालबहादुर शास्त्री की जयंती पड़ी। हमने वर्ल्‍ड टूरिज्म डे मनाया, इल्डर्स डे पर बुजुर्गों को याद किया गया तो उससे पहले गर्ल्‍स चाइल्ड डे जैसे दिनों को भी याद करने की कोशिश की. हर साल ये दिन आते हैं याद किए जाते हैं और बीत जाते हैं. हम शायद ही कभी इन दिनों की उपादेयता को साकार करने की कोशिश कर पाते हों. और यदि ऐसा नहीं है तो फिर क्या यह बताने की गरज भर हमारे सामने है कि देखो हम इन दिनों को अपने कैलेंडर पर दर्ज रखते हैं. ‘मुन्ना भाई’ से शुरू हुआ गांधीगिरी का नशा भी अब युवाओं में लगभग खत्म-सा हो चुका है. भले ही यह एक फिल्म का प्रभाव हो ले·किन कुछ दूर तक और कुछ देर तक तो इसका असर दिखा ही. यूथ अपने विरोध के लिए गुलाब का फूल लेकर पहुंच जाते थे, पैर पकड़ कर अपनी बात मनवा लेते थे. लेकिन समय बदला और यह कोशिश भी धीरे-धीरे दादागिरी में परिवर्तित हो गई और इसका उपयोग कालेज, यूनिवर्सिटी की लडकियों को अपने प्रभाव में लेने के लिए किया जाने लगा है लालबहादुर शास्त्री को तो शायद हम बहुत आसानी से भूलने भी लगे हैं, खासतौर से यूथ का हाल और भी खराब है. जिस देश की आधारशिला यूथ हो, जिस देश की सबसे बड़ी ताकत यूथ हो, जिस देश में सबसे बड़ी आबादी यूथ की हो उस देश का यदि भागम-भाग की जिंदगी में फंसकर अपने मूल को फालतू लगभग बोरिंग और कोरी बकवास मानने लेगेगा तो फिर क्या उम्मीद करेगा। फिर गर्ल्‍स चाइल्ड डे, गांधी जयंती, इल्डर्स डे, शास्त्री जयंती जैसे तमाम डेज का कोई महत्व नहीं होगा. यूथ के लिए तो ज्यादातर दिनों का मतलब अवकाश और फिर मौजमस्ती से होता है. फिर चाहे वह कोई भी डे हो या जयंती. काश हमारा यूथ इन दिनों की अहमियत को समझते हुए कोई सकारात्‍मक पहल करे तो शायद ही कोई ऐसा सपना होगा जिसे साकार करने से हमें कोई रोक पाता. जिस दिन दुनिया भर में गर्ल्‍स चाइल्ड डे मनाया जा रहा था उसी दिन न जाने कितनी बच्चियों को चाइल्ड एब्यूज का शिकार होना पड़ा. उनके साथ रेप से लेकर हत्या तक की वारदातें हुईं. यही हाल गांधी जयंती का रहा. अहिंसा के पुजारी का दिन भी हिंसा से अछूता नहीं रहा। कम से कम हमारी युवा पीढी जिससे अब भी बहुत सारी उम्‍मीदें हैं और हम विश्‍वास करते हैं कि हमारा यूथ कैरियर और मस्‍ती के साथ अपने मूल अपने बेसिक को बचाने के लिए आगे आएगा:

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