अब तो बड़े बन जाइए
बात 2004 की है। मई में पार्लियामेंट के लेक्शन हुए और उसका जो परिणाम सामने आया उसका कुल जमा सच यही था कि देशभर में हाईक्लास स्टेट्स के लिए प्रख्यात दून स्कूल के पूर्व छात्रों का सदन में बोलबाला होने वाला था. यानि एक ऐसा इंस्टीट्यूशन जिसका नाम ही काफी है. मैं बात कर रहा हूं राहुल गांधी, जतिन प्रसाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया की. इसके अलावा उसी समय सचिन पायलट भी चुनाव जीतकर पार्लियामेंट के मेम्बर बने थे. इसके बाद तो लगा कि अब यूथ ब्रिगेड का इंडिया सामने आने वाला है. राजनीतिक गलियारों में वरुण गांधी, नवीन जिंदल, उमर अब्दुल्ला, अखिलेश सिंह, अगाथा संगमा जैसी कानवेंट एजूकेटेड एकदम तरोताजा पीढ़ी की दस्तक साफ सुनाई देने लगी थी. बेशक इनका पॉलिटिकल बैकग्राउंड जरूर था पर उनका तौर-तरीका राजनीति के बूढ़े शेरे से एकदम भिन्न था. आधुनिक भारत के सपने पूरे होने की बड़ी-बड़ी उम्मीदें हमारे उस यूथ ने पाल ली थीं जो पिछले दो दशक से राजनीति से नफरत कर रहा था. राहुल और उनके कजिन वरुण अलग-अलग धारा के यूथ आइकन बन बैठे थे. एक आश्चर्यजनक प्रभाव भी देखने को मिला जब पिछले साल पार्लियामेंट का इलेक्शन हुआ तो यूथ ने 2004 के इलेक्शन के कम्प्रीजन में ज्यादा वोट किया। कहीं न कहीं उन्हें अपने बीच के यूथ को चुनने का अहसास था. पीजा और बर्गर ब्रांड जनरेशन भी राजनीति से जुड़ी न्यूज में इंट्रेस्ट लेने लगी. प्रियंका और राहुल यूथ के बीच अपनी जगह बनाने में कामयाब रहे. लेकिन दुर्भाग्य देखिए, या तो इन युवा नेताओं के लिए स्क्रिप्ट एक योजनाबद्ध तरीके से लिखी जा रही है या फिर इन्हें सही गलत का ज्ञान नहीं है। पहले वरुण ने अपने स्टेटमेंट से यूथ को खासा निराश किया और फिर राहुल गांधी ने. जतिन प्रसाद, राजेश पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया, आगाथा संगमा, अखिलेश सिंह जैसे यूथ आइकन भी अपने बोलने के तरीके से कोई उत्साहजनक प्रभाव पैदा करने में कामयाब नहीं हुए हैं. शायद इन यूथ आइकन को अभी बड़े बनने की जरूरत है. यदि इन्होंने अपने चिंतन को स्पष्ट नहीं किया तो यूथ का फिर से राजनीति से मोहभंग हो सकता है. क्योंकि यह यूथ अब ज्यादा विचारशील है और एकदम अपनी तरह से सोचता है. इस पर कोई अपने विचारों को थोप नहीं सकता है. जब देश के अंदर और बाहर अनगिनत समस्याएं खड़ी हों तो राजनीति के इन नये चेहरों को भी अपने आचरण को देशहित में ढालने का अभ्यास करना चाहिए.
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